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चुनावी तारीखों के ऐलान में गुजरात के साथ स्पेशल ट्रीटमेंट क्यों

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हिमाचल प्रदेश में चुनाव की तारीख 12 अक्टूबर को घोषित की गई लेकिन गुजरात का ऐलान टाल दिया गया। उम्मीद तो यही थी कि हिमाचल और गुजरात में चुनाव की तारीखों का ऐलान एक साथ होगा लेकिन चुनाव आयोग किसी बच्चे की तरह खड़े-खड़े गुजरात मॉडल को निहारता रहा। मुख्य चुनाव आयुक्त एके जोती ने दलील दी कि गुजरात में पिछले दिनों बाढ़ आई थी जिसमें 200 से ज़्यादा लोगों की जान गई थी और वहां राहत और बचाव का काम अभी भी जारी है, अगर चुनावों का ऐलान हुआ तो आचार संहिता लागू हो जाएगी जिसकी वजह से राहत का काम प्रभावित होगा।

सुनने में तो बड़ा लॉजिकल और ह्यूमैनिटी टाइप लग रहा है। लेकिन माननीय आयोग जी गुजरात में बाढ़ जून-जुलाई में आई थी और अब अक्टूबर चल रहा है, क्या तीन से चार महीने में बाढ़ प्रभावित लोगों को राहत नहीं पहुंचाई गई ? चलो हम आपकी बात मान भी लें लेकिन सितंबर 2014 में कश्मीर में भी गुजरात जैसी भयानक बाढ़ आई थी जिसमें 200 से ज़्यादा लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी। कश्मीर घाटी पिछले 60 साल में आई सबसे भयानक बाढ़ की चपेट में थी और श्रीनगर 80 फीसदी तक डूब चुका था। लाखों लोग राहत शिविरों में रह रहे थे। लेकिन आपने अगले ही महीने 26 अक्टूबर 2014 को जम्मू-कश्मीर में चुनावों की तारीख़ों का ऐलान कर दिया था।

जम्मू कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने आपसे चुनाव कुछ महीने टालने की अपील की थी क्योंकि राज्य के हालात बाढ़ की वजह से सही नहीं थे। लेकिन आयोग जी आपने उनकी बात नहीं मानी और दिसंबर में चुनाव कराए। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति के मुताबिक ‘बाढ़ राहत का काम नौकरशाहों को करना है, राजनेताओं को नहीं।’ आचार संहिता किसी राहत कार्य में कोई अड़चन नहीं डालती और ना ही ये मौजूदा परियोजनाओं के काम को रोकती है। तो अब बताइये कि सिर्फ गुजरात के साथ ऐसा स्पेशल ट्रीटमेंट क्यों ?

कौन हैं ए के जोती ?

1975 बैच के IAS अधिकारी ए के जोती 6 जुलाई 2017 को ही मुख्य चुनाव आयुक्त बने थे, उससे पहले वो चुनाव आयुक्त के पद पर 2015 से काम कर रहे थे। जोती साहब को प्रधानमंत्री मोदी का एके-47 भी कहा जाता है क्योंकि वो मोदी जी के काफी करीब हैं। जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब जोती साहब उनकी सरकार के मु्ख्य सचिव थे। 2010 से 2013 तक एके जोती ‘टीम गुजरात’ के टीम लीडर भी रहे थे। इसके अलावा जोती कांडला पोर्ट ट्रस्ट के अध्यक्ष से लेकर सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर भी रह चुके हैं। तो क्या चुनाव की तारीखों में देरी इसी नज़दीकी का परिणाम है ?

क्या देरी से बीजेपी को फायदा होगा ?

ये अब साबित हो चुका है कि पिछले 22 साल से सत्ता में बैठी बीजेपी के लिए इस बार गुजरात का चुनाव आसान नहीं है। जिस गुजरात मॉडल को बेचकर मोदी प्रधानमंत्री बने अब उसकी असली अग्नि परीक्षा होनी है। गुजरात के लोग रोज़गार, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं। नोटबंदी और जीएसटी से गुजरात के कारोबारी ना सिर्फ परेशान हैं बल्कि बीजेपी से नाराज़ भी हैं। पिछले दिनों आई बाढ़ में भी लोगों ने सरकार को परखा, ऊना कांड में दलितों की पिटाई के बाद शुरू हुए दलित आंदोलन ने तो गुजरात सरकार को ही हिला कर रख दिया। पाटीदार आंदोलन में हुई हिंसा और आरक्षण की मांग को लेकर पाटीदारों में भी बीजेपी के खिलाफ नाराज़गी है। जय शाह का मामला तो बिलकुल ताज़ा है, दो दशकों का एंटी इंकमबेंसी भी है और बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीन साल के कार्यकाल को भी लोग देख रहे हैं।

ऐसे में बीजेपी जानती है कि उसके लिए गुजरात का ‘रण’ जीतना आसान नहीं होगा, इसलिए क्या जानबूझकर चुनाव आयोग के ज़रिये तारीखों को थोड़ा आगे खिसकाया गया ?

पीएम मोदी इस साल कुल 11 बार गुजरात का दौरा कर चुके हैं। पिछले दो महीने में ही 4 बार उन्हें गुजरातियों को अपने किये हुए कामों की लिस्ट सुनानी पड़ी। पीएम मोदी ने 14 सितंबर को जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे के साथ बुलेट ट्रेन का शिलान्यास किया, 17 सितंबर को सरदार सरोवर बांध का उद्घाटन किया, 7 अक्टूबर को द्वारका में बेत-ओखा सेतू का शिलान्यास और 22 अक्टूबर को भावनगर में रो-रो सेवा का उद्घाटन किया। अब मोदी जी को सारे प्रोजेक्ट्स की याद गुजरात चुनाव से पहले ही आई, गुजरात सरकार ने भी हाल ही में किसानों को सस्ते लोन, कर्ज़माफी, कर्मचारियों के लिए सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करना, पाटीदारों को खुश करने के लिए उनपर से केस हटाने जैसे कई बड़े फैसले लिये हैं। ऐसे में अगर चुनाव आचार संहिता लागू हो जाती तो केंद्र और राज्य सरकार अपने विकास की डफली नहीं बजा पाती। तो क्या चुनाव आयोग ने सरकार को लिपा-पोती करने का वक्त देने के लिए तारीखों को आगे खिसका दिया ? जवाब क्या होगा इसका अंदाज़ा आपको भी है और मुझे भी।

संसद, विधानसभा, न्यायालय और चुनाव आयोग जैसे संगठन हमारे लोकतंत्र के प्रतीक हैं। जिस तरह न्यायालय संविधान के रक्षक के तौर पर काम करता है उसी तरह चुनाव आयोग लोकतंत्र का सबसे बड़ा पहरेदार है। 1990 के दशक में जब सरकारें कैलेंडर की तरह बदल रही थीं, तब चुनाव आयोग की भूमिका सबसे अहम थी। उस समय मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के काम को आज भी उदाहरण के तौर पर पेश किया जाता है। लेकिन मौजूदा दौर ‘भक्तिकाल’ बन गया है। हर कोई अपनी भक्ति साबित करने में लगा हुआ। ईवीएम के मुद्दे पर भी चुनाव आयोग की भूमिका संदिग्ध थी। देश में संवैधानिक संस्थान लगातार कमज़ोर होते जा रहे हैं जो लोकतंत्र की सेहत के लिए ये अच्छे संकेत नहीं है। खैर अब तो ऐलान हो गया चुनाव का इसलिए अब तो 18 दिसंबर को नतीजे ही बताएंगे कि कौन खुशियां मनाएगा और कौन मुंह लटकायेगा। वैसे एक गाना गुजरात मॉडल की पेश-ए-खिदमत है ‘ये आशिकी तुझपे शुरू तुझपे खत्म’।

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