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मोदी से लड़ते-लड़ते राहुल को भगवान क्यों याद आने लगे हैं?

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मान सरोवर यात्रा के बाद जब राहुल गांधी अपने निर्वाचन क्षेत्र अमेठी पहुंचे तब प्रदेश काँग्रेस नेताओं ने कहा कि भारतीय परंपरा के मुताबिक तीर्थ यात्रा के बाद श्रद्धालु पहले अपने घर पहुंचता है। अमेठी में राहुल गांधी इसी अंदाज़ में दिखे। उनके लिए पोस्टरों में उन्हें शिव भक्त की उपाधि से नवाज़ा गया। संभवतः उन्होंने स्वयं इसकी मंशा जताते हुए स्थानीय कार्यकर्ताओं को संदेश भेजा था। अमेठी में उन्होंने स्वयं भी शिव प्रतिमा का वैदिक मंत्रोच्चार के साथ पूर्जा-अर्चना किया जिससे यह बात और स्पष्ट हो गई। इसके पहले गुजरात चुनाव में भी उन्होंने मंदिर-मंदिर जाकर मत्था टेकने की नौटंकी की थी। मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं और वहां भी उन्होंने ऐसे ही पाखंड की शुरूआत कर दी है।

राहुल गांधी या तो अपराधबोध से ग्रसित हैं जो उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से हो सकता है। उन्हें लगता होगा कि भारत में राजनीति में सफल होने के लिए हिंदू होना ज़रूरी है। हालांकि अचानक उनपर खुद को ब्राह्मण घोषित करने का भूत भी सवार हो गया है। राहुल गांधी को यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि किसी भी कुशल नेता की जाति से लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि ऐसी बात होती तब उनकी मां सोनिया गांधी के कारण काँग्रेस के लिए इतना समर्थन कैसे प्राप्त हो पाता, जबकि उनके सामने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार भी धराशायी हो जाती है।

काँग्रेस की सरकार बनने पर सोनिया गांधी ने स्वयं नेतृत्व नही संभाला लेकिन एक गैर हिंदू डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनने का मौका दिया। जिन्हें मतदाताओं ने इसके बाद भी दूसरा अवसर उपलब्ध कराया। ज़ाहिर है कि बहुसंख्यक मतदाता उनके समर्थन में सबसे आगे रहे। जिसकी वजह से उन्हें यह सफलता प्राप्त हो पाई। दस साल बाद अगर काँग्रेस को पिछले चुनाव में शिकस्त झेलनी पड़ी तो इसलिए नहीं कि अचानक मतदाताओं में हिंदू परख जाग पड़ी थी, बल्कि काँग्रेस के हारने की बड़ी वजह भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे थे।

राहुल गांधी हो या विष्णु का भव्य मंदिर बनवाने की बात करने वाले अखिलेश यादव, ये तमाम नेता जिस तरह से भाजपा से निपटने के लिए धर्म के अखाड़े में कूद रहे हैं वह गलत है। धर्म का अखाड़ा भाजपा का है जिसमें दगंल करने पर बाज़ी भाजपा के पक्ष में ही जानी है।

राहुल गांधी भले ही अभी भी युवा नेता कहलाते हैं लेकिन वास्तविकता में उनकी उम्र बहुत हो चुकी है। अब से पहले तो भक्ति की भावना उनमें देखी नहीं गई। अब अचानक उनमें उन्माद के स्तर पर ऐसा मंदिर प्रेम और भगवान प्रेम उमड़ने लगा है कि उन्होंने काँग्रेस पार्टी का राजनैतिक एजेंडा ही बदल दिया है।

काँग्रेस, समाजवादी पार्टी या फिर कोई मध्यमवर्गीय प्रगतिशील दल अभी तक यह मानते रहे हैं कि धर्म निजी आस्था का मामला है जिसके आधार पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। एक ओर भाजपा से आये राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद हैं जिन्होंने इसी नीति के तहत राष्ट्रपति भवन परिसर में धार्मिक आयोजनों की परंपरा रोक कर सकारात्मक संदेश देने की कोशिश की है। दूसरी ओर प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढ़े रहने वाले राजनीतिक दल हैं जो ज़रूरी मुद्दों पर बात करने बजाए ज़्यादा हिंदू होने के मानक को स्थापित करने में जुटे हुए हैं।

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