राजनीतिक रूप से स्थिर व पूर्ण बहुमत की सरकार देने के बावजूद भी भारतीय जनता ने इन पांच सालों में खुद को ठगा हुआ ही महसूस किया है। केवल धर्म के नाम पर ध्रुविकरण व ऐसे मुद्दों, जिनका भारतीय नागरिकों के लिये कोई महत्व नहीं है, उठाने के अलावा वर्तमान सत्ताधारी पार्टी कुछ और करने में सफल नहीं रही है।
यह पांच साल भी कब गुज़र गये कुछ पता ही नहीं चला लेकिन हां, इन पांच सालों में वह सब कतई नहीं हुआ जिसके भरोसे पर आवाम ने इस पार्टी को पांच साल के लिये मौका दिया था।
अब फिर वही मौसम आने वाला है, जब आपके दरवाज़े पर घंटियां बजाते लोग हाथ जोड़े खड़े होंगे। उन्होंने आपका भला भले ही किया हो या ना किया हो परन्तु उनकी आपसे यही गुज़ारिश होगी कि आप उनका भला करे और फिर से उन्हें ही चुनकर अपनी मिट्टी-पलित करवा लें।
खैर, आप लोगों के पास कोई ऑपशन होगा ही नहीं क्योंकि यह आप भी जानते हैं कि आपकी पार्टी ने हर बार की तरह उन्हें ही टिकट देना है और आपने वोट। आप किसी दूसरी पार्टी के उम्मीदवार को वोट दे ही नहीं सकते, क्योंकि आपको इस बात की इजाज़त आपका धर्म नहीं देता।
जी हां, मैं सही कह रहा हूं कि आपका धर्म ही इसकी इजाज़त नहीं देता। इस देश में अब चुनाव लोकतंत्र के पर्व के तौर पर नहीं बल्कि धार्मिक लड़ाईयों की तरह लड़े जाते हैं।
यहां मेरा धर्म, तेरे धर्म से बड़ा है, इस बात को लेकर समाचार चैनलों पर डिबेट कराई जाती है। धर्म से जुड़े मुद्दे चुनावों में प्रमुखता से उठाये जाते हैं। कहीं गाय के मूत को अपने चुनावी मैनिफेस्टों में जगह दी गई है तो, कहीं राम मंदिर प्रमुख मुद्दा है। कुछ बेवकूफ लोग यह कतई नहीं मानते कि धार्मिक ध्रुवीकरण हो रहा है, क्योंकि वे यह मानना ही नहीं चाहते।
इन सालों में हमने अखलाक और सुबोध कुमार सिंह की ही तरह कईयों को गाय के नाम पर मरते हुए देखा है। राम मंदिर के नाम पर भीड़ जुटाई जा रही है। हर बार ऐसा लगता है कि यह देश फिर से कहीं गोधरा और चौरासी के दंगो की तरह दंगे की आग में जलने के लिये तैयार तो नहीं हो रहा?
वैसे हर चुनाव के साथ इस देश में लोगों की मानसिक गुलामी करने की क्षमता में वृद्धि हुई है, जो कि एक रोचक विषय है और इस देश की सत्ताधारी पार्टी के लिये बहुत अच्छी बात।
हमारे मीडिया संस्थान भी राजनीतिक पार्टियों का, इस काम में बहुत सहयोग देते हैं। वे ऐसी खबरें फैलाने में माहिर हैं जिसका फायदा उनके राजनीतिक आकाओं को हो। उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि वे जन सामान्य के लिये है और लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ हैं।
इतने सारे धार्मिक सम्प्रदायों व इतनी अधिक संख्या में जातियों में बंटे होने के बावजूद भी, हम आज जहां तक भी पहुंचे हैं, वह हमारा इस देश के लिये प्रेम ही दर्शाता है। यह देश मुस्लमानों का भी उतना ही है, जितना की हिन्दुओं का।
क्या हम नागरिक अधिकारों को सुरक्षित रख पाने व उनके लिये लड़ पाने में सफल हुए हैं? क्या हम इस देश को एक बेहतर कल दे पाने में सफल होंगे? मेरे विचार से आगे आने वाले पांच सालों के लिये नई सरकार चुनते वक्त, प्रत्येक भारतीय को यह प्रश्न स्वंय से ज़रूर करना चाहिये।
The post “हमारे यहां अब चुनाव धार्मिक लड़ाईयों की तरह लड़े जाते हैं” appeared first and originally on Youth Ki Awaaz and is a copyright of the same. Please do not republish.