सत्ता पक्ष द्वारा हमें यह क्यो बताया जा रहा है कि हमारे पास आने वाले चुनाव में भारतीय लोकतन्त्र के सर्वोच्च नेतृत्त्व चुनने के लिये केवल दो ही विकल्प हैं? एक है वह पक्ष जो कमज़ोर है और एक है ताकतवर पक्ष। यह दोनों ही बातें हमें सत्ता पक्ष द्वारा बताई जा रही है कि कौन कमज़ोर है और कौन ताकतवर। क्या वाकई में हमारे पास ‘मोदी’ और ‘राहुल’ के अलावा और कोई विकल्प है ही नहीं? या यह केवल एक छलावा है?
आये दिन हर शाम मीडिया संस्थानों के स्टूडियों में होने वाली मोदी (ताकतवर पक्ष) व राहुल (कमज़ोर पक्ष) के नाम की बहसें क्या वाकई में किसी काम की हैं (जैसा कि दिखाया जा रहा है)? या यह केवल मुख्य बिन्दुओं से भटकाने मात्र के लिये चली गई राजनीतिक चालें हैं? हर बार जब भी आने वाले चुनाव की बात हो तो टीवी में केवल दो ही व्यक्तियों (मोदी vs राहुल) की बातें सभी प्रमुख मीडिया संस्थान कर रहे हैं। वो भी ऐसे जैसे हमारे पास इनके अलावा कोई और विकल्प बचा ही ना हो। हमें इस प्रकार दोनों विकल्पों के बारे में बताया जा रहा है जैसे हम 2019 में भारत का नहीं अपितु अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव में वोट डालेंगें।
हम सब यह क्यों भूल जाते हैं कि हम अपने प्रधानमंत्री को सीधे नहीं चुन सकते। भारत का संविधान हमें इस बात की इजाज़त नहीं देता। हमारे देश में चुनाव की अप्रत्यक्ष प्रणाली काम करती है। जिसमें हमारे द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधि या सांसद, संसद में अपना नेता अपने हिसाब से चुनते हैं व जो संसद में बहुमत प्राप्त दल या गठबंधन दल का नेता होता है, वह प्रधानमंत्री या प्रधानसेवक के पद को संभालता है।
फिर टीवी डिबेट्स के माध्यम से हमें यह बताने का क्या तुक है कि फलां-फलां को ही हम इस देश का प्रधानमंत्री चुने? यह सब इस बात के लिये तो नहीं है कि हमारे दिमाग में अपने भावी प्रधानमंत्री की यही छवि होनी चाहिये, जैसी हमें दिखाई जा रही है?
भारतीय लोकतंत्र में व्यक्ति पूजा का रिवाज़ शुरू से ही रहा है। भारत के पहले प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू भी ऐसी ही व्यक्ति पूजा के एक उदाहरण थे, उन्हें सभी चीज़ों/संस्थाओं से सर्वोपरि बना दिया गया था। जिसका खामियाज़ा हमने भुगता क्योंकि उस समय उनकी कद का कोई और नेता काँग्रेस में नहीं था और उनके जाने के बाद उनकी अनुपस्थिति में भारतीय राजनीति में नेतृत्व का संकट गहरा गया। उसके बाद श्रीमती इंदिरा गांधी के समय में भी देश कुछ ऐसे ही हालातों से गुज़रा।
वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एसा ही कुछ और दिखाई दे रहा है, जब केवल एक व्यक्ति विशेष को सभी चीज़ों से ऊपर समझा जा रहा है। ऐसा लगता है कि इतिहास स्वंय को फिर से दोहरा रहा है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है, वह लीडर को बनाती है ना कि लीडर उसे। जनता है तो लीडर है और लीडर के ना होने पर जनता लीडर पैदा भी करती है। उस पर उसके लीडर ऊपर से थोपे जाएं यह कतई सही नहीं है।
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