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“भारतीय वामपंथ ने कभी यहां के सामाजिक ताने-बाने को नहीं समझा”

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आउटलुक फरवरी अंक में प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भारत में राष्ट्रवाद के नाम पर चल रही गुंडागर्दी की वजहों को बताते हुए इसके लिए भारतीय वामपंथ को भी ज़िम्मेदार बताया है। उन्होंने लिखा कि वामपंथ हमेशा से भारतीय परंपरा, सभ्यता और भारतीयता के खिलाफ रहा है।

वामपंथ के इतिहास को देखा जाए तो यह बात बहुत गलत भी नहीं दिखती। आज़ादी के बाद के परिदृश्य में वामपंथी दल संसद में प्रमुख विपक्षी दल की हैसियत रखता था। देश के बड़े-बड़े विश्वविद्यालय, थिएटर, आर्ट, साहित्य, फिल्म से लेकर बड़े-बड़े श्रमिक यूनियन तक में वामपंथियों का कब्ज़ा रहा है। इन सबके बावजूद वे भारतीयता के खिलाफ रहे हैं।

वामपंथियों पर भारत से ज़्यादा दूसरे देश को प्यार करने का आरोप

फोटो सोर्स- Getty

उन्होंने पहले सोवियत यूनियन के समर्थन में भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया। कम्युनिस्टों का तर्क था कि हिटलर के फासीवाद के खिलाफ मित्र राष्ट्र का समर्थन ज़रूरी है और अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने का यह सही वक्त नहीं है। इसी तरह 1962 में उनका प्रेम चीन की तरफ चला गया। रूस और चीन के बाद उनका प्रेम वियतनाम की तरफ चला गया, इसके बाद क्यूबा, क्यूबा के बर्फ से अल्बानिया।

कम्युनिस्टों में कभी भारतीय परिस्थिति को समझने की कोशिश नहीं दिखी। वे हमेशा दूसरे देशों की तरफ टकटकी लगाकर देखते रहें। 1990 के आसपास एक तरफ पूरी दुनिया में सामाजिक परिस्थितियां बदल रही थीं, वहीं दूसरी तरफ कम्युनिस्ट खुद को बदलने को तैयार नहीं हुए। नतीजा हुआ कि वो आज हाशिये पर खड़े हैं।

भारतीय वामपंथ को ही देखें तो आज सिर्फ एक वाम विचारधारा के भीतर सैकड़ों वामपंथी दल और संगठन खड़े हैं। ज़्यादातर जगहों पर आप देखेंगे कि यह दल आपस में प्रतिद्वंदी नज़र आ रहे हैं। दूसरी तरफ वामपंथ के उलट दक्षिणपंथ का देश में एक ही संगठन है, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ। उसके भीतर सैकड़ों संगठन हैं और वे मिलकर अलग-अलग फ्रंट पर सक्रिय हैं।

प्रसिद्ध वामपंथी जॉर्जी दमित्रो ने कहा भी है कि फासीवाद के खिलाफ छोटे-बड़े मतभेदों को भुलाकर एक होने की ज़रूरत होती है। इसी सिद्धांत के तहत हिटलर के खिलाफ रूस ने अपने शत्रु देश अमेरीका तक से हाथ मिलाया।

आज भले वामपंथी नेता वर्तमान मोदी सरकार पर फासीवादी होने का आरोप लगाते रहते हैं लेकिन इस फासीवाद के खिलाफ खुद लेफ्ट आपस में एकजुट होकर फ्रंट नहीं बना पा रहा है। आज भी सीपीआई और सीपीएम सारे विचारधारा और मुद्दे एक होने के बावजूद दो अलग-अलग पार्टी क्यों है यह समझ से बाहर की बात है।

अभी हाल ही में सीपीएम के शीर्ष नेतृत्व में भाजपा के खिलाफ कॉंग्रेस के साथ मोर्चा बनाने को लेकर आपसी टकराव खुलकर सामने आया और पार्टी में टूट की अटकलें लगने लगी हैं। एक ऐसे समय में जब फासीवाद का खतरा सच में गहरा रहा है, वैसे में इस तरह का आपसी मतभेद ना तो पार्टी के लिए अच्छा है और ना ही देश के लिए।

भारतीय वामपंथ की सबसे बड़ी दिक्कत

भारतीय वामपंथ की सबसे बड़ी दिक्कत रही है कि उन्होंने भारतीय सामाजिक ताने बाने को नहीं समझा। उन्होंने भारत में जाति व्यवस्था और उससे बने सामाजिक संरचना को समझने में बड़ी भूल की। जबकि भारत के हिसाब से देखें, तो यहां वर्ग संघर्ष और जाति संघर्ष को अलग-अलग करके देखा ही नहीं जा सकता।

ज़्यादातर समाज में आज भी जातिगत दमन हावी है। ज़्यादातर ज़मीन से लेकर व्यापार और नौकरियों तक में सवर्ण जातियों का ही कब्ज़ा रहा है। भारत में जाति की जड़ें इतनी मज़बूत हैं कि खुद भारतीय वामपंथी संगठनों पर सवर्णों का कब्ज़ा रहा।

भारतीय लेफ्ट के लगभग सारे स्पेस में सवर्ण जातियों का बोलबाला काफी विज़िबल है। सिनेमा, आर्ट, साहित्य, थिएटर या यूनियन हर जगह अपर कास्ट कॉमरेडों को देखकर सामाजिक रूप से हाशिये पर रहे दलितों के मन में शंका होना वाज़िब है। इसका नतीजा है कि जो दलित,  शोषित तबका स्वाभाविक रूप से वामपंथी दलों के साथ होना चाहिए था आज वो उनसे दूर खड़ा है।

लकीर के फकीर ही बने रहे हैं भारतीय वामपंथी

अगर वामपंथी इतिहास को भी देखा जाए तो हम पाते हैं कि रूस में लेनिन ने जो क्रांति की वो मार्क्स के सिद्धान्तों को अपनाते हुए भी अपनी रणनीतियों में बिल्कुल अलग तरीके का था। वहीं चीन में माओ के नेतृत्व में हुई क्रांति सोवियत रूस से अलग कृषकों की क्रांति थी।

लेकिन भारत के वामपंथी लकीर के फकीर ही बने रहे हैं। वे मार्क्सवाद-लेनिनवाद के किताबी सिद्धांतों से इतर सोचने की हिम्मत ही नहीं करते। उन्होंने भारत के संदर्भ में यहां की सामाजिक आर्थिक बनावट को समझते हुए रणनीति नहीं बनाई।

भारत के लोकतंत्र और संविधान ने पिछले 70 सालों में कई ऐसे कदम उठाए हैं, जिससे सदियों से हाशिये पर खड़ा समाज इस व्यवस्था का हिस्सा बन सका है। चाहे आरक्षण हो, मनरेगा हो या कुछ और वामपंथी इन्हें सुधारवादी कदम बतला कर खारिज़ करते रहते हैं।

आज लेफ्ट मिडिल क्लास से बिल्कुल कट गया है। पिछले 30 सालों में भारत में एक नए तरह का मिडिल क्लास पैदा हुआ है, जो इस पूंजीवादी व्यवस्था में खुद को भागीदार समझता है। मार्क्स जिन उद्योग में काम करने वाले मज़दूरों के भरोसे क्रांति की बात करते हैं, वो आज कंप्यूटर पर काम करने वाला पेटी बुर्जु़आ खुद को समझने लगा है, वो आज इस व्यवस्था का बड़ा स्टेकहोल्डर बन चुका है।

अब लेफ्ट यह तय नहीं कर पा रहा है कि उसे पूरी व्यवस्था बदल कर क्रांति लानी है या फिर इस व्यवस्था के भीतर रहकर लोगों के जीवन को बदलना है। दूसरी तरफ समाज का बड़ा हिस्सा जो असंगठित क्षेत्र में काम कर रहा है, उसे लेफ्ट अपने साथ नहीं ला सका है। लेफ्ट पार्टियों ने आदिवासियों-दलितों के मुद्दे पर उनके विस्थापन, जंगल-ज़मीन-जल पर कब्ज़े को लेकर कोई सवाल बनाने की कोशिश नहीं की है।

लेफ्ट पार्टियों में भी ब्यूरोक्रेसी, हायरार्की, पद के प्रति लोलुप्ता अपने चरम पर है। लेफ्ट में डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज़्म का सिद्धांत है, जहां जनतांत्रिक तरीके से ऊपर से निर्णय नीचे की तरफ आता है लेकिन वो आज ब्यूरोक्रेटिक सेंट्रलिज़्म की तरफ हो चला है। आज पोलित ब्यूरो तानाशाही तरीके से आदेश देता है, जिसका ज़मीनी स्तर पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

पिछले कुछ दशकों में अगर आप लेफ्ट के चुनावी मुद्दों को देखेंगे तो पाएंगे कि वे घिसी-पिटी पूंजीवाद-साम्रज्यवाद जैसे शब्दों के आसपास ही टिके हैं। जबकि समय आगे चला गया है। एक नए तरह का मॉडर्न समाज बना है, जो सोशल मीडिया के युग में प्रवेश कर चुका है, जो आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस की दुनिया में कदम रख रहा है। जानकर हैरानी होगी कि सीपीआई की कोई ऑफिशियल वेबसाइट या ट्विटर हैंडल तक नहीं है, सीपीएम ने भी हाल ही में यह शुरू किया है, जब काफी देर हो चुकी है।

इन सबका नतीजा सामने है। त्रिपुरा में 25 साल बाद लेफ्ट हार चुका है। माणिक सरकार जैसे जन नेता हार चुके हैं लेकिन फिर भी लेफ्ट कोई सबक लेने को तैयार नहीं दिखता। आज देश को एक देसी, ज़मीनी और युवा लेफ्ट की ज़रूरत है लेकिन फिलहाल यह संभव होता नहीं दिख रहा है।

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