चुनाव लोकतंत्र का कुंभ है, इसलिए चुनाव आयोग की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। वह ही केवल मतदाताओं को अपने हक के बिना किसी भय या लालच के मत देने का वातावरण बना सकता है।
पूंजीवादी राजनीतिक दल इस वातावरण में अपने स्वार्थ का ज़हर इस तरह घोल देते हैं कि मतदाता उसके प्रभाव में आकर राष्ट्रीय समस्याओं से निगाह हटा लेते हैं। यह मतदाता ही हर चुनाव में भूले-भटके राजनीतिज्ञों को सही राह दिखाते रहे हैं।
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इसलिए मतदाता की ज़िम्मेदारी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, उसे जागरूक होना होगा, अपना मतदान सोच-समझ से विवेकपूर्ण ढंग से करना होगा।लोकसभा चुनाव 2019 का बिगुल 10 मार्च को बजते ही सभी दल सत्ता की दौड़ में शामिल हो गए। अब तक 6 चरण के चुनाम सम्पन्न हो गए हैं। अब अंतिम पड़ाव पर सातवें चरण का मतदान होना है।
शायद ही किसी को ध्यान हो कि लोकतंत्र के इस महोत्सव में बहुत बड़े आर्थिक हिस्से की भी आहूति हो जाती है। अनुमान है कि इस बार 71 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक का खर्च 17वीं लोकसभा के गठन में आएगा जो 2014 की तुलना में ठीक दोगुना है।
2019 का चुनाव सबसे खर्चीला
अमेरिका स्थित एक चुनाव विशेषज्ञ पर दॄष्टि डालें तो उनका मानना है कि भारत के इतिहास और दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश के सबसे खर्चीले चुनाव में से 2019 का चुनाव होगा। सेंटर फॉर मीडिया स्टडी का अध्ययन करें तो पता चलता है कि 1996 में लोकसभा के चुनाव में 25 सौ करोड़ रूपए खर्च हुए थे।
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साल 2009 में यह रकम चार गुना बढ़कर 10 हज़ार करोड़ हो गई। हालांकि इसमें वोटरों को गैर-कानूनी तरीके से दिया गया कैश भी शामिल है। दो दशक के भीतर अब यह सात गुने से अधिक का खर्च बन गया है, जो 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव का ठीक डेढ़ गुना है।
खराब होती देश की आर्थिक हालत
यह हर चुनाव में देखा गया है कि पूंजीवादी कॉर्पोरेट परस्त राजनीतिक दल चुनाव आयोग द्वारा नियम संगत ठहराए गए खर्च से कई गुना धन व्यय करते हैं। तमाम निगरानी के बावजूद ईमानदारी हमेशा इस मामले में खतरे में रहती है। यह चुनाव आयोग भी शायद जानता है और देश के सभी सियासतदान तो इसमें शामिल ही होते हैं।
अनाप-शनाप धन के व्यय से जहां देश की आर्थिक हालत पतली होती है, वहीं साधनहीन गरीब, छोटी पार्टियों, संघर्षशील ईमानदार और कर्मठ के लिए चुनाव लड़ना मुश्किल हो जाता है। फलस्वरूप लोकतंत्र में ऐसे लोगों का समावेश रिक्त रह जाता है। यह महज़ आंकड़ा नहीं, बल्कि भारत की वह असल तस्वीर है जिससे शायद ही कोई अनभिज्ञ हो कि जिस भारत में लोकतंत्र इतना महंगा हो जाए उसी भारत में हर चौथा व्यक्ति अशिक्षित और इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं।
किसानों की आत्महत्या चिंता का सबब
भारत किसानों का देश है मगर प्रतिवर्ष 12 हज़ार की दर से यहां आत्महत्या हो रही है। पिछले चार दशक की तुलना में बेरोज़गारी सबसे बड़े आंकड़े के साथ बढ़त बनाए हुए हैं और बेरोज़गार युवा कैरियर और लाइफ मैनेजमेंट के मामले में कहीं अधिक फिसड्डी सिद्ध हो रहे हैं।
इन्हीं समस्याओं को दूर करने के लिए ही पूंजीवादी बड़े राजनीतिक दल चुनावी समर में तरह-तरह के वायदे करते हैं और बाद में इन्हीं समस्याओं के साथ लोगों को छोड़ भी देते हैं और स्वयं आगे बढ़ जाते हैं। इन्हीं पीछे छूटे लोगों से फिर से नए चुनावी वायदों और नई उम्मीदों का सिलसिला दशकों से चल रहा है।
वर्ष 2019 का यह आम चुनाव कोई सामान्य चुनाव नहीं है बल्कि भारत के लोकतंत्र को आज़ादी के 72 वर्ष बाद तानाशाही की इतनी बड़ी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा है।
अगर हमें देश के धर्मनिरपेक्ष और समतावादी संविधान को बचाना है, देश को कट्टर सांप्रदायिक, जातिवादी और फासीवादी धार्मिक देश में तब्दील होने से रोकना है, कॉरपोरेट परस्त नवउदारवादी व्यवस्था के गर्त में डूबने से देश को बचाना है, तो कॉर्पोरेट संघी फासिस्ट ताकतों के खिलाफ वोट देकर 90 % मेहनतकश जनता के जनवादी विकल्प की स्थापना करनी चाहिए।
The post “फासिस्ट ताकतों के खिलाफ वोट करें ताकि सच्चे लोकतंत्र की स्थापना हो” appeared first and originally on Youth Ki Awaaz and is a copyright of the same. Please do not republish.