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“शर्मनाक है ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़ना”

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गुलाम भारत में नवजागरण की रोशनी बिखेरने वाले और महिलाओं के खिलााफ कुसंस्कारों को खत्म करने वाले व्यक्ति के रूप में ईश्वरचंद विधासागर वह प्रथम पुरुष हैं, जिन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में मनुष्य को सभ्य बनाने की कोशिश की।

अगले साल उनके जन्म के दो सौ वर्ष पूरे हो जाएंगे और असभ्य समाज ने उनकी प्रतिमा को तोड़कर उसी रूप में याद किया, जिस रूप में वह रूढ़िवादी तत्वों को स्वीकार्य नहीं थे।

हिंदुत्व का उत्थान भी नवजागरण काल का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष रहा है। इतिहास बताता है कि ईश्वरचंद विधासागर तमाम सामाजिक कुरतियों को समाज से अपदस्थ करने में मशरूफ रहे और खुद को प्रगतिशील मानवतावादी चिंतक के रूप में स्थापित किया।

भारतीय समाज को कुसंस्कारों से मुक्त करने की पहल

‘हिंदू लॉ बोर्ड’ परीक्षा में अधिकतम अंक प्राप्त करने के कारण उन्हें ‘विधासागर’ की उपाधी मिली। मैंने और मेरी पीढ़ी के अधिकांश लोगों ने ईश्वरचंद विधासागर को स्कूली किताबों में कम और बाल पत्रिकाओं में प्रेरक-प्रसंग वाले कहानियों से अधिक जाना। यह बताती है कि कैसे उन्होंने औपनिवेशिक भारत में पहले खुद को शिक्षित किया फिर गुलामी के दासता के दौर में मानवतावादी आंदोलनों के बल पर भारतीय समाज को कुसंस्कारों से मुक्त करने की कोशिशें की।

आज भी बंग्लाभाषी बांग्ला की वर्णमाला के अक्षर विधासागर की मेहनत और जतन के कारण ही सीख पाते हैं। आधुनिक बंग्ला साहित्य और भाषा के निर्माण में कई विद्धानों का योगदान है मगर यह अपभ्रंश तक ही स्थिर हो जाती यदि भारतीय भाषा और लिपी की सीमा के तरफ विधासागर महोदय ने ध्यान नहीं दिलाया होता और ना ही बंगालियों की भाषा और इतिहास के तथ्य लिखे जाते।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर को समझना ज़रूरी है

भक्ति आंदोलन के समय की रचनाएं ‘चर्यापद’, ‘मंगल काव्य’ और यहां तक कि चैतन्य महाप्रभु के बारे में बताने वाले में ईश्वरचंद विधासागर की प्रमुख भूमिकाएं हैं। ईश्वरचंद विधासागर के प्रयासों से पूरा समाज दो धंड़े में बंटा हुआ था। पहला धड़ा गुलामी के दासता से मुक्त होने के लिए सामाजिक दास्ता को अधिक प्राथमिकता नहीं देने के पक्ष में था। दूसरा धड़ा सामाजिक दास्ता से मुक्ति को अधिक ज़रूरी समझता है।

यही धड़ा समाज को मानवतावादी बनाने के लिए सामाजिक-नैतिक नियम-कायदों के साथ-साथ कानूनी नियम-कायदों की भी वकालत करता था। महिलाओं के हित में बाल-विवाह कानून ईश्वरचंद विधासागर के प्रयासों की ही देन है।

भारतीय नवजागरण के नायक और मानवतावादी चिंतक के रूप में ईश्वरचंद विधासागर केवल बंगाल के गौरव नहीं है, पूरे देश के सभ्य चेतना के गौरव हैं। उनका अपमान अपनी असभ्यता का बेशर्म प्रदर्शन है।

इसी बेशर्म अराजकता के खिलाफ उन्होंने समाज को शिक्षित होना ज़रूरी माना और ‘अंधेरी नगरी’ नाटक में रूढ़िवादी समाज को नंगा करते हुए है कहा, “नगरी अंधेर है, तभी राजा चौपट है।”

फोटो साभार: Getty Images
फोटो साभार: Getty Images

भारतीय सभ्यता संस्कृति में बाल विवाह, सती प्रथा और विधवा विवाह के लिए उनका संघर्ष स्मरणीय हैं, जिसमें बाल विवाह से मुक्ति तो अभी भी नहीं मिल सकी है। ईश्वरचंद विधासागर की मूर्ति के साथ किए गए व्यवहार से आहत लोगों का मन बार-बार कह रहा है कि खुद को सभ्य कहने के दावे से पहले अपने अंदर की असभ्यता को खत्म करने के लिए आत्मचिंतन करें।

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