अखिलेश यादव की महाभारत के रूपक में बात की जाए तो वो न तो गंगापुत्र भीष्म हैं जिन्होने अपनी सौतेली माँ के लिए सिंहासन का अपना अधिकार त्याग दिया था और न ही कर्ण जिन्होने सौतेले भाई के लिए वरदानी कवच-कुंडल सौंप दिये थे। अखिलेश को न तो अपने घरेलू कलह से इतरा रहे विपक्ष की परवाह है, न ही उन्हें गाइडेड मिसाइल के बतौर अपने ख़िलाफ़ इस्तेमाल हो रहे पिता के पैंतरों का खौफ है। हालांकि यह कयास गलत हैं कि वे नई पार्टी के ऐलान की पहल करने वाले हैं।
ज़माने की निगाह में टकराहट कितनी बढ़ जाने के बावजूद वे सलीम यानी बागी बेटे की छवि नहीं बनाना चाहते इसके बजाय उन्हें इंतज़ार इस बात का है कि नेताजी उन्हें पार्टी से निकालने की पहल करें। लेकिन मुलायम सिंह की मजबूरी यह है कि कितने भी नाराज़ होने के बावजूद वे अपने बेटे के प्रति कोमल संवेदनाओं से भरे एक पिता हैं जिससे अखिलेश से अदावत भाँजने की उनकी एक सीमा है। पिता पुत्र के बीच चल रहे शक्ति परीक्षण के राउंड का फ़ाइनल क्या होगा, यह बहुत अनिश्चित है जिससे पार्टी के सारे काइयां नेता दम साध लेने को मजबूर पा रहे हैं। मौके की नज़ाकत के मद्देनज़र तटस्थता ओढ़ लेना उनकी नियति बन गई है।
मुलायम सिंह द्वारा मुख्यमंत्री पद का चेहरा चुनाव के दौरान तय होने से इंकार किए जाने के बाद अखिलेश को खिन्नता तो बहुत हुई होगी लेकिन पत्रकारों से यही कहा कि नेताजी देश के सबसे अनुभवी नेता हैं ,उन्होंने जो कहा वह सोच समझ कर ही कहा होगा। अखिलेश शब्दों और भंगिमा में संयमित रहने के बावजूद कूल-कूल नहीं थे। मुख्यमंत्री पद को लेकर मुलायम सिंह द्वारा ज़ाहिर किया गया रुख अखिलेश के लिए बहुत बड़े आघात की तरह था जिसके बाद उनका रुख भी फ़ैसलाकुन हो गया। अब उन्होंने अपने पत्ते एक-एक कर फेंकने शुरू कर दिये हैं।
जनेश्वर मिश्र ट्रस्ट के दफ़्तर को उन्होंने समानांतर पार्टी दफ़्तर में तब्दील कर दिया है। इसमें वे लोग मोर्चा संभाल रहे हैं, जिन्हें शिवपाल सिंह ने सपा से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। इसके बाद उन्होंने न केवल समाजवादी पार्टी के सिल्वर जुबली आयोजन के संयोजक का दायित्व संभालने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया बल्कि 5 नवम्बर को पार्टी के इस बिग शो के पहले ही 3 नवम्बर से विकास से विजय यात्रा पर रवाना हो जाने की खबर चिट्ठी से मुलायम सिंह को भिजवा दी है। यह ज़ाहिर हो गया है कि अकेले ही चुनाव प्रचार शुरू करने का अखिलेश ने सिर्फ बयान ही नहीं दिया था बल्कि वे इस पर पूरी तरह आमादा भी हैं। खाद्य सुरक्षा योजना के नए राशन कार्डों पर सिर्फ अपनी तस्वीर छपवा कर उन्होंने बिना कुछ कहे सपा सुप्रीमो पर अपनी निर्भरता समाप्त करने जैसा ऐलान कर दिया है।
इस बीच प्रोफेसर रामगोपाल ने अखिलेश को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित न करने पर सपा के मटियामेट होने की चेतावनी देते हुए मुलायम सिंह को चिट्ठी लिख डाली जिसमें उन्होंने यह तक कह दिया कि नेताजी इतिहास इसके बाद आप को कोसेगा। मुलायम सिंह को रामगोपाल से इतनी कड़ी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी वे इससे तिलमिलाए तो बहुत लेकिन परिवार और पार्टी की बर्बादी की दुश्चिंता ने उन्हे डरा भी दिया है।
इससे बड़ा झटका एम एल सी उदयवीर सिंह ने दिया। जो बात अभी तक केवल मीडिया का एक वर्ग कह रहा था, उसे पहली बार सपा में आधिकारिक रूप से कहा गया है। खतों के ज़रिये सपा में शुरू हुए घात-प्रतिघात के सिलसिले में नई कड़ी जोड़ते हुए उन्होंने मुलायम सिंह को जो चिट्ठी लिखी है वो बेहद विस्फोटक है। इसमें उन्होंने शिवपाल को अखिलेश की सौतेली माँ का सियासी चेहरा करार दे कर पार्टी की लड़ाई के तार असल तौर पर नेताजी की दूसरी पत्नी, उनके बेटे और बहू व रिश्तेदारों से जुड़े होने के संशय को प्रमाणिकता प्रदान करने की कोशिश की है। चिट्ठी में उदयवीर का अंदाज़े बयां इतना तीखा है कि लोग अखिलेश समर्थकों की जुर्रत कितनी बढ़ती जा रही है इसका अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रहें हैं।
दरअसल सरकार और पार्टी में क्लेश की शुरुआत हुई भी घरेलू कारणो से ही थी। अमर सिंह से अखिलेश को शुरू से ही चिढ़ है लेकिन अमर सिंह पनामा पेपर्स जैसे मामलों के प्रकांड विशेषज्ञ हैं। आय से अधिक संपत्ति के मामले को लेकर काफी मुसीबत झेल चुके मुलायम सिंह को साधना और प्रतीक के विदेशों में निरापद अर्थ प्रबंधन के नाम पर शिवपाल दोबारा मुलायम सिंह के पास लाये। शिवपाल ने भी कम नाम नहीं कमाया। उनके वित्त प्रबंधन में भूमिका निभा कर अमर सिंह ने पहले ही मुलायम सिंह के दरबार में दाखिला के लिए जुगाड़ कर लिया था।
मुलायम सिंह अपनी दूसरी पत्नी और बेटे के संपत्ति संबंधी राज अखिलेश से साझा तो नहीं कर सकते, इसलिये अमर सिंह को उनके द्वारा दिया जा रहा प्रोत्साहन अखिलेश को जब रास नहीं आया तो मुलायम सिंह उखड़ गए। उधर शिवपाल जब साधना और प्रतीक के आर्थिक रहस्यों के राज़दार हो गए तो घनिष्टता बढ़ जाने से उन्होंने और साज़िशों का जाल बुन डाला। उदय वीर सिंह ने अपनी चिट्ठी में लिखा है कि आप यानी नेताजी का एक तरफ़ा व्यवहार ही झगड़े के इतना बढ़ने की वजह है।
लेकिन मुलायम सिंह की कठोरता अब फ़ना हो चुकी है। पूरा घटनाक्रम जिस मोड़ पर पहुँच गया है उससे वे स्तब्ध हैं। उनकी कातरता सामने नहीं आ पा रही लेकिन किरण मय नंदा ने सी एम के चेहरे को लेकर उठे विवाद पर मुलायम सिंह के बयान में भूल सुधार का जो प्रयास किया उसमें उनकी सहमति या निर्देश न हो यह कोई नहीं मान सकता। आज़म खान साहब अचानक अखिलेश के मुरीद हो कर उनकी तारीफ के इतने कसीदे काढ़ बैठे क्या इसलिये कि वे अपने को अखिलेश के पाले में खड़ा दिखाना चाहते हैं हालांकि बात दूसरी है। मुलायम सिंह के कहने से ही उन्होंने यह किया होगा जिससे अखिलेश को मनाने की गुंजाइश बन सके।
मुलायम सिंह अब बेटे के साथ पालाबंदी का खेल ख़त्म करना चाहते हैं पर शिवपाल और अखिलेश के बीच इतना ज़्यादा पाला खिंच चुका है कि इसे पूरना अब उनके बस में भी नहीं रहा गया। अखिलेश को अपनी टीम की पार्टी में ससम्मान वापसी से कम कुछ मंजूर नहीं है लेकिन मुलायम सिंह अब किस मुँह से शिवपाल से उनका निष्कासन निरस्त करने की कह सकते हैं। उन्ही के समर्थन की वजह से ही तो शिवपाल ने इसे प्रतिष्ठा के मुद्दे के बतौर इतना ज़्यादा गरम कर दिया है।
बहरहाल मुलायम सिंह के सामने बेबसी की स्थिति है। शायद मुलायम सिंह को इस मोड़ पर अपने गुरु चौधरी चरण सिंह के जीवन के अंतिम दिनों की अभिशापपूर्ण स्थितियाँ याद आ रही होंगी। जिसमें वे खुद भी एक पात्र थे। चौधरी चरण सिंह के उत्तराधिकार पर उस समय ठनी थी जब वे बिस्तर पर गिर चुके थे। कौन क्या साज़िश कर रहा है उन्हें सब दिखाई दे रहा था लेकिन कुछ करना उनके बस में नहीं रहा गया था ।मुलायम सिंह की पारिवारिक जंग और चौधरी चरण सिंह की पीड़ा में स्वरूपगत कोई सीधा साम्य भले ही न हो लेकिन कहीं न कहीं चौधरी साहब और मुलायम सिंह की नियति एक जैसी आभासित होती है। प्राकृतिक न्याय और इतिहास अपने को दोहराता है, यह 2 सूत्र इसमें प्रासंगिक हैं।
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