समाजवादी पार्टी में छिड़ी जंग अब इस हद तक पहुंच गई है कि पिता ने पुत्र को ही कारण बताओ नोटिस जारी किया और तुरंत ही उन्हें दल से निकाल भी दिया। राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव की 325 उम्मीदवारों की सूची के जवाब में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी 235 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की जिसके बाद मुलायम सिंह ने अखिलेश और महासचिव रामगोपाल यादव को कारण बताओ नोटिस जारी किया था।
नोटिस में दोनों से सपा प्रमुख ने पूछा था कि क्यों न उन पर अनुशासनहीनता की कार्रवाई की जाए। तकनीकी तौर पर देखा जाए तो अखिलेश यादव ने सीधे-सीधे समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की अवहेलना करते हुए अपनी सूची जारी की थी। ऐसे में उनके पास कारण बताओ नोटिस का कोई स्पष्ट जवाब नहीं हो सकता था।
रहे रामगोपाल यादव तो उन्हें पहले भी पार्टी से निकाला जा चुका था, और कुछ दिन पहले ही वापस लिया गया था। उनका तो निष्कासन या निलंबन तय माना ही जा रहा था और अब शायद चुनावों से पहले तक उनकी वापसी नहीं होगी।
असली सवाल अखिलेश यादव का है। अनुशासनहीनता पर कोई भी पार्टी निलंबन या निष्कासन की कार्रवाई ही करती है। रिश्तों की डोर न होती तो निश्चित ही पहले ही अखिलेश को पार्टी से निकाल दिया गया होता। खैर, ये रिश्ता भी आखिरकार मुलायम सिंह को रोक नहीं पाया।
उधर, अखिलेश के सबसे बड़े सलाहकार बन चुके उनके चाचा रामगोपाल यादव ने मीडिया से कह रहे थे कि अब उन्हें समझौते की कोई गुंजाइश नहीं लगती और अखिलेश की सपा ही चुनाव में जीतेगी। अखिलेश की लिस्ट के बाद शिवपाल ने भी बची-खुची संभावनाएँ खत्म करते हुए 68 उम्मीदवारों की एक और सूची जारी कर डाली थी।
साफ ज़ाहिर है कि दोनों ही पक्ष किसी तरह से झुकने को तैयार नहीं हैं। इतना ही नहीं, दोनों ही लगातार आगे भी बढ़ते जा रहे हैं। दोनों ही पक्षों में कल तो संवाद हुआ भी था लेकिन बदली परिस्थितियों में अब नहीं लगता कि दोनों पक्षों के बीच किसी तरह का संवाद बचा है। दोनों के बीच कोई संवाद सूत्र तक नहीं मौजूद दिखता।
अखिलेश का निष्कासन होने पर अब सरकार पर भी खतरा मंडराने लगा है। सरकार बचाने के लिए अखिलेश कांग्रेस या किसी अन्य दल का समर्थन लेने की जोड़-तोड़ कर सकते हैं, लेकिन इससे उनकी छवि तो खराब होगी ही, और उससे भी बड़ा सवाल है कि उनकी तरफ से ये करेगा कौन! ले-देकर एक रामगोपाल यादव ही बचते हैं, लेकिन उनकी पहचान केवल मुलायम सिंह यादव के भाई के तौर पर ही तो है। वो पार्टी का काम भी दिल्ली से ही देखा करते हैं।
दूसरी तरफ मुश्किल में शिवपाल धड़ा भी है जिसे अब मुलायम धड़ा ही कहना चाहिए। अखिलेश को ही निकाल दिया गया है तो ये चुनाव में किस आधार पर वोट माँगेंगे। अखिलेश तो अपनी विकास की उपलब्धियाँ गिना भी सकते हैं, लेकिन शिवपाल के साथ तो दिक्कत हो जाएगी।
एक तरीका केवल यह हो सकता है कि मुलायम सिंह विधायक दल की बैठक बुलाकर खुद ही मुख्यमंत्री बन जाएँ। ऐसा होने पर ही विधायकों में टूट टाली जा सकती है या कोई टूट होगी भी तो बहुत मामूली होगी। मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री बनने की स्थिति में मुलायम और शिवपाल धड़े को प्रचार करने में कुछ तो दिक्कत आएगी लेकिन ज्यादा नहीं आएगी।
ऐसे में अखिलेश का पूरा खेल ही खत्म हो सकता है। हालाँकि वे अलग पार्टी बनाकर साइकिल के चुनाव चिह्न पर दावा कर सकते हैं, और कम से कम इन चुनावों के लिए तो इस चुनाव चिह्न को ज़ब्त करा ही सकते हैं। इतने जल्दी नए चुनाव चिह्न पर जाने में मुलायम सिंह को भी दिक्कत होगी।
सत्ता न रहने पर उनकी हैसियत घर के नाराज बेटे की ही रह जाएगी। सत्ता के कारण जो लोग उनके इर्द-गिर्द मँडरा रहे हैं, वो भी छिटकने लगेंगे। अगर वो मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री बनने का विरोध करेंगे तो इसका बहुत ही नकारात्मक संदेश जाएगा। वैसे बेटे को हटाकर अगर मुलायम सिंह खुद मुख्यमंत्री बनते हैं तो इसका असर उनकी छवि पर भी पड़ेगा।
हर सूरत में कठिनाइयाँ हैं, लेकिन अब विवाद टालने योग्य बचा नहीं है। बहुत से बहुत एक दो हफ्ते किसी तरह से खींचा जा सकता है, लेकिन ये तय है कि नए साल में समाजवादी पार्टी में कुछ नया जरूर होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)
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