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कुछ ऐसे लड़ी जाएगी यूपी की सियासी जंग

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उत्तरप्रदेश समेत पंजाब, गोवा और उत्तराखंड के विधानसभा चुनावों के कार्यक्रम का ऐलान कभी भी हो सकता है, और यह अब तकरीबन स्पष्ट होता जा रहा है कि चुनावी परिदृश्य कैसा होगा और कौन-सी पार्टी किस तरह की रणनीति के साथ सामने आएगी।

सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में भी यह तस्वीर साफ होती जा रही है, और यह तय होता जा रहा है कि मुकाबला मुख्य रूप से चतुष्कोणीय होगा। मुख्य खिलाड़ी राज्य का सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी, मुख्य विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी, केंद्र में सत्तारूढ़ दल और 2014 के लोकसभा चुनावों में 80 में से 73 सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी, राज्य में फिर से जड़ें जमाने में जुटी कांग्रेस पार्टी होंगे।

इनके अलावा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश में सीमित प्रभाव वाला राष्ट्रीय लोकदल भी टक्कर के मुकाबले में अहमियत रखेंगे। असदुद्दीन ओवैसी की एमआईएम और जनतादल यूनाइटेड भी ताल ठोंकने की कोशिश करेंगे, लेकिन चुनाव आते-आते ये किनारे हो जाएँगे और केवल बयानबाजी तक सीमित रहेंगे।

बात मुख्य दलों की करें तो समाजवादी पार्टी के बारे में अब यह तय होता जा रहा है कि लड़ते-झगड़ते हुए भी समाजवादी पार्टी एक ही रहेगी और एक ही चुनाव चिह्न के तहत चुनाव लड़ेगी। मुलायम सिंह अपने भाई शिवपाल और बेटे अखिलेश के बीच कोई स्पष्ट रवैया नहीं चुनेंगे और जैसे-तैसे एक सर्वसम्मत सूची जारी हो जाएगी।

अखिलेश कांग्रेस से तालमेल करने के इच्छुक हैं और राष्ट्रीय लोकदल से भी गठबंधन के पक्ष में हैं। समस्या सीटों के बंटवारे की है क्योंकि कांग्रेस अपने जनाधार से ज्यादा सीटें चाहती है। कांग्रेस के अभी 28 विधायक हैं, और करीब 12 सीटें ऐसी हैं जिन पर उसके उम्मीदवार दूसरे नंबर पर थे। कुछ और भी सीटों पर कांग्रेस दूसरे नंबर पर थी, लेकिन उन पर पहले नंबर पर समाजवादी पार्टी ही थी, जिससे वो कांग्रेस को शायद ही दी जाएँ। कांग्रेस को सपा कुछ बढ़ाकर 60 सीटें तक देने की इच्छुक है जिसमें कुछ और बढ़ोतरी कर सकती है। यह तय है कि कांग्रेस की अपेक्षानुसार उसे 100 या ज्यादा सीटें तो नहीं मिलेंगी। बहुत संभव है कि तालमेल अब हो ही न क्योंकि आपसी सुलह-समझौते में अखिलेश का जोर उनकी पसंद के उम्मीदवारों पर रहेगा और दूसरे मुद्दों पर वो शायद जोर न बना पाएँ।

समाजवादी पार्टी के एक और संभावित सहयोगी बाबूसिंह कुशवाहा और उनकी पार्टी जनाधिकार मंच हो सकती थी, लेकिन लगता है कि दोनों ही दलों ने इस बारे में कोई विचार नहीं किया।

बहुजन समाज पार्टी चुनाव प्रचार में सबसे आगे रही है, लेकिन नोटबंदी का सबसे बुरा असर उस पर ही पड़ा है। नोटबंदी के ऐलान के बाद से मायावती की रैलियाँ तकरीबन बंद ही हैं और वो केवल प्रेस कॉन्फ्रेंस करके ही अपनी उपस्थिति दर्शा रही हैं।

बसपा की चुनावी रणनीति में मुस्लिम प्रभाव वाली सीटों पर ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार उतारने की रहने वाली है। वैसे लगातार दूसरी चुनावी हार झेलना उसके वजूद के लिए खतरनाक हो सकता है, ऐसे में उसकी प्राथमिकता यह भी होगी कि किसी तरह से वह समाजवादी पार्टी से ज़रूर आगे रहे।

बसपा चाहेगी कि वह सरकार ही बनाए और न बन पाए तो वह मुख्य विपक्षी दल ज़रूर रहे ताकि उसका महत्व बना रहे। भाजपा की सरकार बने, ये उसके लिए समाजवादी पार्टी की सरकार बनने से ज्यादा अनुकूल होगा। उसे बहुजन मुक्ति पार्टी जैसी पार्टियों से भी आंशिक नुकसान हो सकता है।

लोकसभा चुनावों में सपा-बसपा का तकरीबन सफाया करने वाली भाजपा अब पहले जैसी स्थिति में नहीं है। उसकी तरफ से किसी को मुख्यमंत्री पद का दावेदार भी घोषित नहीं किया जा सकेगा। अलग-अलग क्षेत्रों में वह परोक्ष रूप से वह ऐसे संकेत देने की कोशिश करेगी कि योगी आदित्यनाथ, राजनाथ सिंह, केशवप्रसाद मौर्य आदि के समर्थक अपने अपने नेता को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानकर भाजपा को वोट दें।

नोटबंदी का प्रभाव तो भाजपा पर पड़ने ही वाला है, और हो सकता है, उसके द्वारा कालेधन के खिलाफ बनाए माहौल का नतीजा इंडिया शाइनिंग के नारे की तरह हो। उस समय जनता भाजपा के विरोध में तो ज्यादा नहीं दिख रही थी लेकिन जब वोट डालने की बारी आई तो उसने भाजपा को करारी चोट दी थी।

नोटबंदी के बाद से जिस तरह से काला धन बाहर निकलने की अपेक्षा थी, वह पूरी नहीं हुई है, जिससे जनता को यह औचित्य समझाना मुश्किल होगा कि नोटबंदी आखिर की क्यों गई। 31 दिसंबर के राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री लोकलुभावन बजट की तरह घोषणाएँ करते तो नजर आए लेकिन यह समझाने की कोशिश उन्होंने भी नहीं की कि नोटबंदी से आखिर हासिल क्या हुआ।

कांग्रेस ने विशेषण रणनीतिकार नियुक्त करके पैर जमाने की कोशिश की है लेकिन असरदार स्थानीय नेताओं के अभाव में वह कुछ हासिल नहीं कर पाई है। समाजवादी पार्टी से तालमेल के लिए भी वह तैयार है लेकिन साथ ही चाहती है कि सपा के दम पर ही वह अपना जनाधार इतना बढ़ा ले कि बाद में वह सपा पर ही हावी हो सके।

ऐसे में सपा-कांग्रेस के बीच तालमेल की संभावनाएँ कम ही हैं और अकेले लड़ने पर कांग्रेस की हालत पिछले विधानसभा चुनावों से भी खराब रह सकती है। उसके पिछली बार 28 विधायक जीते थे, जिनमें से समय-समय पर कुछ विधायकों के निकल जाने से अब करीब 22 विधायक ही बचे हैं। पिछड़े वर्गों और दलितों से उसका संवाद अब तक नहीं बन पाया है और सवर्ण सपा या बसपा के विरोध में भाजपा को ही वोट देना उचित समझेंगे।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल का प्रभाव है लेकिन अकेले लड़ने में उन्हें अस्तित्व का संकट झेलना पड़ सकता है। पिछली बार ही उनके विधायकों की संख्या दो अंकों में नहीं पहुँची थी और इस बार उसमें भी कमी हो सकती है। अगर वो कांग्रेस से तालमेल कर भी लें तो भी ज्यादा फायदा नहीं होगा।

अजित सिंह के लिए समाजवादी पार्टी से ही तालमेल करना उचित हो सकता है, और ऐसे में वह करीब 25 सीटों पर लड़कर 15 से 20  सीटें जीतने की उम्मीद कर सकती है, वो भी तब जबकि सपा का प्रदर्शन अच्छा रहे।

इस मिली-जुली तस्वीर में अब किसी भी दल को पूरे बहुमत के आसार नहीं दिख रहे। सबसे बड़े दल के रूप में समाजवादी पार्टी हो सकती है, लेकिन सरकार बनाने के लिए उसे कुछ विधायकों की कमी पड़ सकती है। अगर भाजपा कुछ बेहतर न कर पाई तो सपा के आसार बढ़ जाएँगे, और भाजपा का प्रदर्शन कुछ बेहतर रहा तो बसपा को आगे बढ़ने का मौका मिल सकता है। इस आकलन में यह ध्यान रखना चाहिए कि अभी असली चुनाव अभियान शुरू होना बाकी है जिस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा।

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