यह बात भले ही खराब लगे लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारतीय चुनावी दुनिया काले पैसे से चलने वाली सबसे बड़ी गतिविधि है, जो लोकतंत्र की साख को बट्टा लगाती है।
अफसोस इस बात का है कि मुख्यधारा की राजनीति ने व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के बजाय इसका विरोध किया है। उदाहरण- केंद्र सरकार का सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामा। जिसमें राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने का विरोध किया है।
सूचना आयोग का फैसला
सन् 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने इन दलों को आरटीआई में लाने के आदेश जारी किए थे लेकिन सरकार और पार्टियों ने आदेश का पालन नहीं किया। उसे निष्प्रभावी करने के लिए सरकार ने संसद में एक विधेयक भी पेश किया मगर जनमत के दबाव में उसे स्थाय समिति के हवाले कर दिया गया।
संसदीय मॉनसून सत्र के पहले हुई सर्वदलीय बैठक में एक स्वर से पार्टियों ने अदालती आदेश को संसद की सर्वोच्चता के लिए चुनौती माना।सरकार ने उस फैसले को पलटने वाला विधेयक पेश करने की योजना भी बनाई पर जनमत के दबाव में झुकना पड़ा।
क्या हैं आय के ‘अज्ञात’ स्रोत?
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के मुताबिक देश के पांच राष्ट्रीय दलों की 80 फीसदी आय ‘अज्ञात स्रोतों’ से आ रही हैं। यह जानकारी चुनाव आयोग को जमा किए गए पांच पार्टियों के इनकम टैक्स रिटर्न के आधार पर है।
राजनीतिक दलों को छुट
राजनीतिक दलों को आयकर कानून-1961 की धारा 13-ए के तहत पूरी छूट हासिल है। उन्हें 20 हज़ार रुपए से ज़्यादा चंदा देने वालों का हिसाब रखना होता है। पार्टियों की अधिकांश कमाई चंदे की है।
पार्टियां सामाजिक प्रतिष्ठान नहीं
राजनीतिक पार्टियों की कमाई का विवरण हासिल करने के लिए जब आरटीआई के तहत अर्ज़ी दी गई तो पार्टियों ने कहा, ”हम सार्वजनिक प्रतिष्ठान नहीं हैं।” जिसके बाद केंद्रीय सूचना आयुक्त से इस बारे में जानकारी ली गई और 3 जून 2013 को सूचना आयोग की बेंच ने छह राष्ट्रीय दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने का फैसला सुनाया।
मुख्य सूचना आयुक्त के अनुसार सभी 6 राष्ट्रीय दल सरकार से सस्ती ज़मीन सहित कई अन्य सुविधाएं प्राप्त करते हैं इसलिए यह सार्वजनिक प्राधिकार है।
यह कयास लगाए जा रहे थे कि दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को सरकार तकरीबन 255 करोड़ रुपए की सब्सिडी देती है।
राजनीतिक अपराधीकरण के खिलाफ आंदोलन
90 के दशक में नागरिक अधिकार संगठनों ने राजनीतिक अपराधीकरण के खिलाफ आंदोलन चलाया। जिसमें अपराधिक छवि वाले प्रत्याशियों को टिकट नहीं देने की बात थी। एडीआर ने इसके लिए दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की मगर हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई।

2 मई 2002 को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया कि वोटर को प्रत्याशियों की अपराधिक और वित्तीय पृष्ठभूमि जानने का अधिकार है। इस फैसले पर सरकार तैयार नहीं हुई, जिसके बाद चुनाव आयोग ने अधिसूचना जारी करते हुए प्रत्याशियों की जानकारी देना अनिवार्य कर दिया।
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