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आतंकवाद के फर्ज़ी केस में जेल जाने वाले युवकों की कहानी

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सभी दलों ने चुनावी वायदे जारी कर दिए हैं लेकिन किसी भी दल ने यह नहीं कहा कि आतंकवाद के नाम पर अपनी ज़िंदगी के कीमती 10, 15 , 20 साल जेल में बर्बाद करने के बाद अगर किसी आरोपी को बरी किया जाता है तो सरकार उसे मुआवज़ा देगी। हकीकत यह है कि सरकारें ऐसे ही उनकी ज़िंदगी बर्बाद करती रहेंगी।

राजनीतिक दलों को अपने मैनिफेस्टो में यह कहना चाहिए था कि आतंकवाद से जुड़े केस में यदि आरोपी बरी किया जाता है, तो जेल में उसके जितने साल बर्बाद हुए रिहा होने के बाद उसे उतने करोड़ का मुआवज़ा मिलेगा। इसके साथ ही जिस अधिकारी ने जेल भेजा उस पर भी कार्रवाई की बात करनी चाहिए।

आप शायद इस बात को हल्के में ले सकते हैं लेकिन आतंकवाद से जुड़े मामलों पर सरकार से सवाल नहीं करने की वजह से सैंकड़ो युवाओं को इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ता है। एक ऐसे ही शख्स हैं इकबाल अहमद ज़काती। उसे गुजरात पुलिस ने आतंकवाद के फर्ज़ी केस में चार साल तक जेल में रखा, जहां उसे तरह-तरह की यातनाएं दी गई। जब उसे चार साल बाद जेल से रिहा किया गया तब तक उसके पिता की सदमे से मौत हो चुकी थी, बीवी-बच्चे बीमार थे।

जब वह काम की तलाश में निकला तो किसी ने भी उसे नौकरी पर नहीं रखा। सब उसे आतंकवादी मान चुके थे। जब वह मस्जिद में जुम्मे की नमाज़ पढ़ने जाता था तो कोई उसके साथ खड़े होकर नमाज़ नही पढ़ता था।

पेशे से इकबाल पत्रकार है। उसने अपने भाई से रुपए उधार लेकर अपना साप्ताहिक अखबार शुरू किया लेकिन उसके बाद प्रशासन की तरफ से अड़चनें आने लगी। यहां तक कि उसे एनकाउंटर तक की धमकी मिली।

महाराष्ट्र के नासिक की टाडा अदालत ने आतंकवाद से जुड़े एक 25 साल पुराने मामले में 11 मुस्लिम युवकों को बरी कर दिया है। विशेष टाडा अदालत ने सबूतों के अभाव और टाडा यानी आतंकवादी और विघटनकारी क्रियाकलाप (निरोधक) अधिनियम के दिशा-निर्देशों के उल्लंघन का हवाला देकर इन लोगों को बीते 27 फरवरी को बरी करने का आदेश दिया।

जमीयत उलेमा-ए-हिन्द ने इन 11 लोगों को कानूनी सहायता प्रदान की थी,  जिनके नाम हैं ज़मील अहमद अब्दुल्ला खान, मोहम्मद यूनुस मोहम्मद इशाक, फारुक नज़ीर खान, यूसुफ गुलाब खान, अयूब इस्माइल खान, वसीमुद्दीन शम्सुद्दीन, शेखा शफी शेख अज़ीज़, अशफाक सैयद मुर्तुज़ा मीर, मुमताज़ सैयद मुर्तुज़ा मीर, हारून मोहम्मद बफती और मौलाना अब्दुल कादेर हबीबी।

इन 11 आरोपियों में एक डॉक्टर और एक इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर शामिल है। इन पर महाराष्ट्र के भूसावल के एक रेलवे स्टेशन और बिजली संयंत्र पर बम रखने की साज़िश रचने का आरोप है। इन्हें न्याय तो मिला लेकिन इन लोगों ने अपने जीवन के कीमती साल खो दिए। इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? क्या सरकार इसकी भरपाई कर पाएगी? क्या सरकार इनका सम्मान लौटाएगी? इन लोगों के परिवारवालों ने बहुत कुछ सहा है। इनमें से कुछ लोगों के परिवारवालों का देहांत भी हो गया।

यह भारत में पहला वाक्या नहीं है जहां पुलिस ने किसी को आतंकवाद के आरोप में जेल में डाला हो और बाद में वह बरी हो गया हो। इससे पहले भी एटीएस, एनआईए और पुलिस के सहयोग से सरकारों ने बेगुनाह मुस्लिम युवकों की ज़िंदगियां बर्बाद की है।

दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद में बम ब्लास्ट के मामले में 1996 में गिरफ्तार मोहम्मद आमिर खान को 14 साल बाद कोर्ट ने बरी कर दिया। उसकी दुनिया अब बदल चुकी है। आमिर अपनी कहानी कुछ यूं सुनाते हैं, ‘‘जब मैं बच्चा था तो पिंजरे वाली गाड़ी (कैदियों को लाने वाली गाड़ियां) देखकर ‘चोर-चोर’ चिल्लाता था। मुझे उसमें बंद सभी कैदी चोर नज़र आते थे लेकिन जब मैं खुद उसमें बंद हुआ तब महसूस हुआ कि पिंजरे में निर्दोष भी रहते हैं”

चेहरे पर फीकी मुस्कान के साथ इस घटना को याद करते हुए 32 वर्षीय आमिर खान की आंखें अचानक बेड़ियों के भीतर बीती ज़िंदगी की कहानी बयान करने लग जाते हैं। कैसे महज़ 18 साल की उम्र में दिल्ली पुलिस ने उसे सीरियल बम धमाकों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था, कैसे उसने अपनी ज़िंदगी के कीमती 14 साल जेल की सलाखों के पीछे काटे और आखिर में कोर्ट ने उसे निर्दोष मानते हुए बरी कर दिया, ये सब उसकी आंखों में दिख रहा था। लेखक ज़ाकिर अली त्यागी

इन 14 सालों में उसकी दुनिया उजड़ चुकी है। उसके पिता ‘हाशिम खान’ बेटे की गिरफ्तारी के तीन साल बाद समाज के बहिष्कार से परेशान होकर और न्याय की आस छोड़कर दुनिया से चल बसे। दशक भर की लड़ाई के बाद 2008-09 में आमिर की मां की हिम्मत भी जवाब दे गई और वह सदमे से लकवाग्रस्त हो गई। आमिर कहते हैं, ‘‘आज भी अपनी वालिदा के मुंह से बेटा शब्द सुनने को तरसता हूं’’। कानून की चक्की में पिसा आमिर अब एलएलबी की पढ़ाई कर वकील बनना चाहता है ताकि जेल में बंद निर्दोष लोगों के लिए इंसाफ की लड़ाई लड़ सके।

पेशे से डॉक्टर महाराष्ट्र के 35 वर्षीय रईस अहमद को मालेगांव मस्जिद धमाके में 2006 में एटीएस ने गिरफ्तार कर लिया था। साथ में शहर के अन्य आठ लोगों को साज़िश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। जब एनआईए ने इन लोगों की रिहाई का विरोध नहीं करने का फैसला किया तो पांच साल बाद मकोका अदालत ने इन्हे छोड़ दिया। जब 16 नवंबर 2011 को वे रिहा हुए तो उन्हें मालूम पड़ा कि उन लोगों ने क्या खो दिया है। मतदाता सूची से उनके नाम काट दिए गए थे। उनके परिवार को मानसिक यातनाओं से गुज़रना पड़ा। परिवार में कोई रोज़गार नहीं था।

उत्तर प्रदेश के रामपुर के रहने वाले 35 वर्षीय जावेद अहमद को 11 साल और कानपुर के वासिफ हैदर को बेगुनाह होने के बावजूद 9 साल जेल में बिताने पड़े।

बिजनौर के 32 वर्षीय नासिर हुसैन को 22 धमाकों का मास्टरमाइंड बताया गया लेकिन सात साल के बाद वह निर्दोष साबित हुए। युवा मकबूल शाह को अपनी ज़िंदगी के 14 साल तिहाड़ जेल में बिताने पड़े। उस पर दिल्ली के लाजपत नगर में धमाके करने का आरोप था लेकिन दिल्ली हाइकोर्ट ने उसे बरी कर दिया।

अब्दुल मजीद भट्ट पहले श्रीनगर में आतंकियों के आत्मसमर्पण कराने में सेना की मदद करते थे लेकिन किसी बात पर आर्मी इंटेलिजेंस में तैनात एक मेजर से उनकी अनबन हो गई। उसके बाद मजीद पर मानो आफत आ पड़ी। श्रीनगर में उसे पकड़वाने में नाकाम मेजर ने दिल्ली पुलिस की मदद ली। दिल्ली पुलिस की टीम ने मजीद को श्रीनगर से उठाया लेकिन उसे दिल्ली से गिरफ्तार बताया।

मजीद ने आरटीआई के ज़रिए गाड़ियों की लॉग बुक मंगाई, जिससे पुलिस की थ्योरी गलत साबित हुई। मजीद इंडिया टुडे से कहते हैं, ‘‘देश की व्यवस्था खराब नहीं है। पुलिस में कुछ लोग खराब हैं, जिनकी वजह से पूरा सिस्टम बदनाम होता है। हम पहले भी देश के लिए ही काम करते थे और आज भी कर रहे हैं।’’

16 वर्षों से जेल की सलाखों के पीछे अपने जीवन का सबसे कीमती वक्त गंवाने वाले पीएचडी के छात्र गुलज़ार को हाल ही में आगरा की एक अदालत ने आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के आरोपों से बा-इज़्ज़्त बरी कर दिया है।

करीब दो दर्जन से ज़्यादा ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जिनमें मुस्लिम युवाओं को पुलिस ने फंसाया लेकिन अदालत ने उन्हें रिहा किया। जब कोई वारदात होती है तो पुलिस पर दबाव होता है और उस दबाव को कम करने के लिए वह गर्दन के नाप का फंदा तलाशती है। उसे इस तरह पेश किया जाता है कि मुलजिम को ही मुजरिम बताया जाता है। इतना ही नहीं, बार काउंसिल प्रस्ताव पारित कर केस लड़ने से इनकार कर देती है। सामाजिक बहिष्कार हो जाता है। पुलिस की विफलता और कथित सभ्य समाज का ज़ुल्म एक मासूम का जीवन बर्बाद कर देता है।

कई बार संदिग्धों का केस लड़ने वाले वकीलों को धमकियां भी मिलती है। मुंबई के वकील शाहिद आज़मी की हत्या इस बात का उदाहरण है। दिल्ली में आतंक के फर्ज़ी मामले में जेल की सज़ा काट चुके शाहिद आज़मी ने मुंबई में बेगुनाहों का केस लड़ने की ठान ली थी।

हाल ही में वरिष्ठ वकील महमूद प्राचा को धमकी मिल चुकी है, जो इज़रायली दूतावास के सामने हुए कार धमाके समेत दर्जनों आतंक से जुड़े मामलों की पैरवी कर रहे हैं। मदनी मांग करते हैं, ‘‘पुलिस अधिकारी किसी को पकड़ता है तो जिस तरह उसे शाबाशी मिलती है, उसी तरह जवाबदेही भी तय होनी चाहिए क्योंकि पुलिस की विफलता की वजह से गलत व्यक्ति जेल में पिसता है और असली मुजरिम बच निकलता है।”

ऐसे बेगुनाह युवक जब घर लौटते हैं तब उनकी दुनिया उजड़ चुकी होती है। समाज उन्हें शक की निगाह से देखता है, जबकि उसे गिरफ्तार करने वाले पुलिसवाले कभी पदोन्नति तो कभी बहादुरी का मेडल अपने सीने पर लगाए फूले नहीं समाते। उन बेगुनाहों को उनका कीमती कोई नहीं लौटा सकता।

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