अब दंगे उग्रवादी बहुसंख्यकवादी संगठन नहीं चलाते। उन्होंने यह काम संचार तंत्र को आउटसोर्स कर दिया है क्योंकि एक हिंसक नाज़ी मीडिया का मॉडल हिंदुस्तान में खड़ा है।
यह पूंजीपतियों द्वारा संचालित होता है और श्रम शोषण का अधिकार आरक्षित रखने के लिए 24*7 काम करता है। किसी अधिनायक के खेल तमाशे में खो जाने के कारण इस पूरे संचार तंत्र से भारत के बुनियादी मसले नदारद हो चले हैं।
आर्थिक ढर्रे पर स्थापित मीडिया
समय आ गया है कॉरपोरेट मीडिया को बिसराकर क्राउड फंडिंग के आर्थिक ढर्रे पर काम करने वाले मीडिया को स्थापित करने का जो संचार तंत्र में आवाम की भागीदारी को सुनिश्चित करेगा। जिससे समाज में सकारात्मक परिवर्तन आएगा।
जब तक मीडिया हाउस कॉरपोरेट का पिछलग्गू बनकर वातानुकूलित कमरों से झूठे खबरों का उत्पादन करता रहेगा, तब तक कोई कैमरा जंगलों में आदिवासियों की बदहाली, झुग्गी झोंपड़ियों में रहते मज़दूरों की पीड़ा, सुदूर देहात में चिलचिलाती धूप में आवाम के लिए अन्न उपजाते किसानों की आर्थिक तंगी परदों पर नहीं दिखाएगा। इसलिए ज़रूरी है कि मीडिया को कॉरपोरेट मुक्त बनाना होगा ताकि झूठे खबरों का उत्पादन ना हो।
संचार तंत्र की आर्थिक बुनियाद विज्ञापन
मौजूदा वक्त में सभी संचार तंत्र की आर्थिक बुनियाद विज्ञापन है और यह तभी मिलता है, जब खबरें पूंजीवादी व्यवस्था और धन्ना सेठों के भ्रष्टाचार पर प्रश्न चिन्ह लगाने के बजाय उनके हितों की रक्षा एवं पक्ष में प्रचार-प्रसार का गुब्बार खड़ा करने की क्षमता रखता है।
आज का मीडिया हाउस हिंदुस्तान में क्रोनी कैपिटलिज़्म प्रहरी के रूप में स्थापित है, जो बोफोर्स और राफेल रक्षा सौदों में हुई रिपोर्टिंग से स्पष्ट है।
जहां बोफोर्स नव उदारवादी अर्थव्यवस्था एवं अति कॉरपोरेट मीडिया उभार के पहले की रिपोर्टिंग थी। वहीं, दूसरी ओर राफेल के वक्त संचार और पूंजी की सांठ-गांठ अपने क्रोनी के हितों की रक्षा में संलग्न नज़र आती है ।
लाभ का अंश मीडिया की झोली में
यह संदेह तो प्रकट होता ही है कि लाभ का कुछ अंश मीडिया की झोली में भी जाकर अवश्य गिरता होगा। ऐसे ही तमाम सवालों को परदों से गायब करने के लिए हर शाम धार्मिक सम्मेलन टीवी स्टूडियो में बुलाए जाते हैं। जहां एक मौलाना, भगवा धारी पंडित और विचार शून्य विचारक हर रोज़ नफरत का उत्पादन संचार माध्यमों से हर घर में करता है।

रोज़ आवाम को ध्रुवीकरण के खराद पर चढ़ाकर उन्मादी बनाया जाता है। राष्ट्रवादी और राष्ट्रविरोधी आवरण द्वारा नफरत के बाज़ार में आकर्षक बनाकर बेचा जाता है ताकि वह सवाल ना पूछ सके।
क्रोनि कैपिटलिज्म के खेल में डूबी नौकरियां
विकास की वह कौन-सी जादुई छड़ी थी, जिसने बेरोज़गारी दर को 45 सालों में नीचे पायदान पर लाकर पटक दिया। तमाम सरकारी उपक्रम को किस तरह निवेश से वंचित रखकर आर्थिक बदहाली के चौखट पर पहुंचाया गया।
फिर इलेक्शन फंडिंग भी तो इन तमाम पार्टियों को पूंजीपतियों से चाहिए। इनके हितों में निजीकरण क्यों ना हो? क्या हुआ अगर सार्वजनिक क्षेत्रों में लाखों नौकरियों की उम्मीदें क्रोनि कैपिटलिज़्म के खेल में डूब जाएं।
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